👉 नोट- अगले अंक से पढ़िए शिल्पांचल में बालू तस्करी से जुड़ी सिलसिलेवार स्टोरी…
आसनसोल : एक मशहूर कविता है- ”रेत के विस्तार की मृगतृष्णा मत पालो… रेत हमेशा रेत ही होती है, उसमें कोई सभ्यता पनप नहीं सकती, तब उनका अस्तित्व खतरे में दिखाई देता है, जब रेत के विस्तार का भय उन्हें सालता है, ओ नीति-निर्माणको तुम कभी भी रेत को अनदेखा मत करो, रेत के कथ्य पर पर्दा मत डालो”। विख्यात कवि रमेश ऋतंभर द्वारा रचित कविता ‘रेत का कथ्य’ वैसे तो काफी लंबी-चौड़ी है, जो पर्यावरण और मानवीय संवेदना से जुड़ी हुई है। लेकिन, उसी कविता से ली गई उपरोक्त पंक्तियां आज आसनसोल-दुर्गापुर शिल्पांचल के लिए पूर्ण व प्रत्यक्ष तरीके से फीट बैठती है। भला हो भी क्यों ना… यहां आज लोगों की जान से ज्यादा कीमत ‘बालू’ की हो गई है।
जी हां… यहां उसी बालू या रेत की बात हो रही है, जिसे नदियां अपने साथ लहराते-बलखाते लेकर चलती है। लेकिन, कुछ लोगों को यह भी स्वीकार नहीं कि नदी अपने साथ बालू को रखे और वो नोच ले जाते हैं। इनकी कोख को खाली कर अपना पेट भर लेते हैं।
किसी भी क्षेत्र की सभ्यता-संस्कृति व विकास के केंद्र में वहां के पर्यावरणीय माहौल का अहम योगदान होता है। आसनोसल-दुर्गापुर शिल्पांचल के साथ भी कालांतर में यही स्थिति रही है। इसे ईश्वरीय आशीवार्द (द गॉड गिफ्ट) ही कह सकते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर यह शिल्पांचल अपने साथ अनोखे ऐतिहासिक विरासत व गाथा को समेटे हुए है। कालांतर में विशाल वन भूमि, चारों तरफ से कल-कल कर बहती हुईं नदियां, गांवों में बड़ी संख्या तालाब के साथ ब्लैक डायमंड (कोयला) और गोल्डन सैंड (बालू) की प्रचूर उपलब्धता ने यहां के ऐश्वर्य को चार चांद लगाने का काम ही किया है।
अक्सर कहा जाता है कि अच्छी चीजों पर बुरी नजर पहले लगती है। आक्रांता सबसे पहले वहीं पहुंचते हैं, जहां ऐश्वर्य संपदा भरी पड़ी हो, ताकि लूट-पाट में काफी कुछ हासिल हो सके। ठीक ऐसा ही शिल्पांचल के साथ ही होता रहा। 80 के दशक से आक्रांताओं का आगमन यहां होता रहा है। हालांकि अब आक्रांताओं का चोला बदल गया है। अब वे डकैत या तस्कर नहीं लगते, ऐसा कहने की भी जुर्रत नामुमकिन है। अब वे समाजेसवी रूप में सामने आते हैं। अब वे रक्षक के तौर पर आपके सामने रहते हैं। अब वे विकास की बात करते हैं। अब वे शोषण-दोहन नहीं करते। बल्कि अब ऐसी समाजेसवा की जाती है कि चित और पट दोनों उसी की रहती है। किसकी रक्षा कर रहे होते हैं, समझने की लाख कोशिशों के बावजूद ये समझ से परे होता है। अब सभी अपनी जरूरतें पूरी करते हैं।
आक्रांताओं का आना-जाना लगा रहता है। कोई एक टीम बनाकर आता है। तो किसी को कप्तान बना दिया जाता है, फिर वह अपनी टीम बनाता है। कोई दो साल के लिए आता है। तो कोई यहां आकर फिर जाना ही नहीं चाहता और बार-बार घूम-फिर कर इधर-उधर फूदकता रहता है। इस पूरी प्रक्रिया में आक्रांताओं ने अपना लंबा-चौड़ा कारोबार बाहर फैला लिया है। अपना महल तैयार कर लिया है। अब उन्हें क्या कि शिल्पांचल बर्बाद हो जाए या फिर यहां के लोग काल के गाल में समा जाए। सिलसिला चलता रहता है। शिल्पांचल की सभ्यता और संस्कृति से उन्हें कोई मतलब है नहीं? बस लूट-खसोट नियम के अनुसार होता रहे, इसके लिए एसी लगे कमरे में बैठकर नियम-नीतियों का निर्माण और उसे लागू करवाने में लगे रहते हैं। काम में अड़ंगा डालने वालों को डराने-धमकाने, वीडियो बनाने और पैसे देकर चुप कराने के अलग-अलग तरीके हैं।
शिल्पांचल में बालू कारोबार ने जो रेस हाल के कुछ वर्षों में पकड़ी है। वैसी दयनीय स्थिति पहले कभी नहीं देखी गई। आप किसी एक क्षेत्र का नाम नहीं ले सकते कि वहां बालू कारोबार चल रहा है। बल्कि हर क्षेत्र में ही यह कारोबार चलता है। घाट वैध है या फिर अवैध…इस पर जोर-शोर से चर्चा होती रहती है। लेकिन, जितनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भर-भर कर बालू ले जाए जाते हैं। नदियों के बीच रास्ता बनाकर बड़ी-बड़ी मशीनें लगाकर रोजाना हजारों-हजार की संख्या में वाहन पार करना तो किसी रूप में वैधता साबित ही नहीं करता है। बीच नदी में ब्रिज के नीच से बालू खनन होता है। गांव के छोटे-छोटे रास्तों से बालू लदे वाहनों का परिचालन किया जाता है। हर छोटे-बड़े घाट पर बालू तस्करों का रौब इस कदर होता है कि वहां के आस-पास के लोग कुछ बोल पाने की जेहमत नहीं उठा पाते हैं। ऐसा नहीं है कि बालू तस्कर अपने लाव-लश्कर के साथ हथियारों से लैस आक्रांताओं की तरह दिखते हैं। बल्कि अहम होता है उन तस्करों को मिलने वाला बैक सपोर्ट। ये बैक सपोर्ट कब-किस रूप में आम लोग पर भारी पड़ जाए, बोलना मुश्किल है। क्योंकि बैक सपोर्ट देने वालों को 2-5 साल में चले जाना होता है और जाने के पहले उनकी कोशिश होती है जितना चाहे बटोर लिया जाए।
भले ही वैध घाट से बालू खनन किया जा रहा हो, लेकिन जिस अवैज्ञानिक तरीके से खनन व निकासी की जाती है, उसके दुष्परिणाम अवश्य सामने आ रहे हैं। भले ही वो दूरगामी ही क्यों न हो? शिल्पांचल को ऐसे दुष्परिणाम वर्षों से धीरे-धीरे कर लगातार मिल रहे हैं। लेकिन उन पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है। इसका एक रोचक उदाहरण यह है कि वर्ष 2012 में आसनसोल के मेयर ने कालाझरिया (बर्नपुर) इलाके में अवैज्ञानिक पद्धति से बालू खनन पर चिंता जताई थी और विभागीय स्तर पर पत्र लिखकर यह कहा था कि अगर ऐसा होता रहा तो कालाझरिया वाटर प्रोजेक्ट खतरे में आ सकता है। अब उनकी इस चिंता ने 12 वर्षों के बाद दुष्परिणाम दिखाया और अंजाम आज सबके सामने है। आसनसोल के ही विधायक और राज्य के मंत्री के बड़े भाई को ही दामोदर नदी ने बर्नपुर में निगल लिया था। बेचारे अपने पूर्वज की आत्मा की शांति के लिए तर्पण करने गए थे। इस हादसे ने अवैज्ञानिक बालू खनन को जिम्मेदार बताया था। आम लोगों के काल-कलवित होने की घटनाएं असंख्य है। लेकिन मजेदार बात है कि तस्करों या आक्रांताओं को कुछ झेलना नहीं पड़ता। वे लूटते हैं, फलते-फूलते हैं और फिर चले जाते हैं।
शुक्रवार की रात को जामुड़िया के चिंचूड़िया में जब बालू लदे एक वाहन से एक अधेड़ की मौत हो गई तो इस घटना ने उग्र रूप ले लिया। बोला जा रहा है कि उग्र लोगों ने पुलिस की पिटाई कर दी और वैन में तोड़फोड़ किया। लेकिन आखिर बालू लदे वाहन के धक्के से मौत होने पर निशाने पर पुलिस क्यों आ गई? वो तो अपना काम करने पहुंची थी? लेकिन जवाब आता है कि अगर काम ही किया होता तो ऐसी नौबत आन पड़ती क्या? ये कोई एक जामुड़िया या चिंचूड़िया की कहानी नहीं है, बल्कि जार-जार होते शिल्पांचल के हर उस हिस्से की कहनी है, जहां आक्रांताओं की भीड़ है। हर निगाह बस लूट पर टिकी हुई है। बात करें तस्करों की तो ये भी शिल्पांचल के लोगों जैसे ही हैं। ये कोई दूसरे ग्रह से यहां नहीं टपके हैं, लेकिन बैक सपोर्ट ने इनकी मानवीयता को खत्म कर दिया है। आक्रांता (बाहर से आकर शासन करने वाले) ने इन्हें सुरक्षा कवच दे रखा है। बस यहीं से शुरू होता है पूरा खेल…
”रेत से रिश्ते संभाल के रखिए, गर हवा हो जाएं तो मिसाल पे रखिए’
क्रमशः












